इस समय हरिद्वार कुंभ की चर्चा है। मैंने सोचा इसी को आपके साथ बाँटू। हरिद्वार का वातावरण एक बड़े मेले की तैयारी में लगातार करवटें ले रहा है। आये दिन अखाड़ों के समाचार से यहाँ के अखबार रंगे रहते हैं। कभी किसी की पेशवाई को लेकर तो कभी किसी मंडलेश्वर के अभिषेक को लेकर। हर अखाड़ा अपनी शक्ति और वैभव का प्रदर्शन करके दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश में है। माघी पूर्णिमा के दिन 30 जनवरी को जब जूना अखाड़े की पेशवाई निकली तो ऐसा लगा मानो आकाश के सभी तारे धरती पर उतर आये हों। वैसे तो नगर के व्यवसायी धार्मिक जुलूसों में कम ही हिस्सा लेते हैं लेकिन कुंभ का अवसर हो और अखाड़ों की शोभा, तो वे भी पीछे नहीं रहते। कामधंधे की चिंता छोड़ सुबह से ही बाल-बच्चों सहित उस मार्ग पर जम जाते हैं जहाँ से पेशवाई निकलनी हो। जूना अखाड़े की पेशवाई की चर्चा अभी ठंडी नहीं पड़ी थी कि पंचायती महानिर्वाणी की पेशवाई सामने आ गई। मैं भी इसका हिस्सा था। क्या जलवा था। सवेरे से ही वे मार्ग खाली हो गये थे जहाँ से पेशवाई निकलनी थी। सफाई ऐसी कि दूर-2 तक एक तिनका भी नज़र नहीं आता था। तोरण और बन्दनवारों से जगह-2 द्वार सजे थे, सुहागिनें आरती का थाल लेकर सुबह से ही तैयार खड़ी थीं। सड़क के दोनों ओर चूने की कतार किसी महान के आने के इंतज़ार में बिछी थीं। पुलिस प्रशासन ऐसे सतर्क जैसे राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड निकलने वाली हो। कर्नाटक से लेकर कश्मीर तक के हर प्रान्त के पहनावे में देश के कोने-2 से आये भक्तों की टोलियां, हाथी पर सवार दण्डधर, घोड़ों पर सवार शस्त्रधर कोपीनवन्त नागा सैनिक, तुरही और नगाड़े बजाते ऊँट सवार, सुसज्जित रथों पर सवार महामण्डलेश्वर और आगे-पीछे नाचते-गाते चलते उनके अनुयायी। कुल मिलाकर एक हँसता-खेलता, सुन्दर और भक्ति के भावोन्मेष में लीन भारत। हरिद्वार की सड़कों पर बिखरी आस्था उस अमृत से कम नहीं थी जो युगों पूर्व हरिद्वार की धरती पर समुद्र मंथन से निकले अमृत कुंभ से छलका था। वह तो शायद कुछ बूंद ही था पर यहाँ तो आस्था का समुद्र था जो जाति-भाषा, अमीर-गरीब, पंथ-मत आदि के अंतर को समेटना चाहता था। आस्था के इस उल्लास से केवल धरती ही नहीं आकाश भी प्रभावित था। पेशवाई पर आकाश से एक वायुयान निरन्तर पुष्प-वृष्टि कर रहा था मानो देवताओं ने भी इस अवसर को अपने आनंद से जोड़ लिया हो। हिन्दु समाज का यह उल्लास ही उसके अनन्त जीवन का सत्य है। जब तक यह आस्था रहेगी, इस देश और इसकी संस्कृति पर आँच नहीं आ सकती।
Saturday, February 6, 2010
Thursday, February 4, 2010
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मुंबई जाना तो मराठी मानुष बनके |
16वीं शताब्दी में मुंबई पुर्तगाली राजकुमारी को दहेज में मिली थी। उसके बाद जाने कब यह ठाकरे परिवार के पास आ गई। ये हमारा वहम है कि हम लोकतांत्रिक देश का हिस्सा हैं। जब चाहे, जहाँ चाहे आ-जा सकते हैं। पर कृपया अपने इस ‘कहीं भी‘ की सूची से मुंबई को निकाल दें। गलतफहमी को पाले रखना कोई समझदारी की बात नहीं। मुंबई जाने के लिये आपको हिन्दू (शिवसेना की परिभाषा के अनुसार) होना चाहिये, मराठी आनी चाहिये और एक प्रमाणपत्र साथ होना चाहिये कि आपने ठाकरे बंधुओं के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा है, साथ ही शपथ पत्र भी कि आप आगे भी कुछ नहीं कहेंगे। पर रूकिये। कहीं आप यूपी या बिहार से तो नहीं आ रहे। यदि हाँ, तो चाहे आपके पास कुछ भी हो, आपकी मुंबई में ‘एन्ट्री‘ निषेध है। इस नियम के कुछ अपवाद हैं जिनपर आप प्रश्न नहीं उठा सकते, जैसे मुसलमानों का मुंबई में स्वागत नहीं है पर यदि वे सेलिब्रिटी हैं तो ‘ मातोश्री‘ में जा सकते हैं। उत्तर भारतीय फिल्म स्टार से भी ठाकरे साहब को कोई एलर्जी नहीं है। हिंदी भाषी गंगा किनारे के छोरे अमिताभ बच्चन के वे मुरीद हैं।उत्तर भारतीय सब्जी बेचें या सुबह दूध लाकर दें तो ‘भैयाजी‘ बहुत अच्छें हैं। पर भैयाजी का बेटा अफसर बन गया तो ठाकरे साहब की भौं टेढ़ी हो जाती है। कुछ तो बात है साहब में कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी दिल्ली से बयान तो मार देते हैं पर मुंबई जाकर उन्हें ठाकरे की ठोकरों से नहीं बचा पाते। ठाकरे जैसे शेर पर तो उनका क्या बस चलता पर वे तो अपने मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को भी ठाकरे की भाषा बोलने से नहीं रोक पाये। आज शिवसैनिक तय करते हैं कि मुबई में कौन रह सकता है और उसे क्या काम करने की इजाज़त है। शाहरूख जैसे बड़े स्टार को खुली धमकी कि ‘मन्नत‘ मुंबई में है पाकिस्तान में नही, देने वाले क्या किसी आतंकवादी से कम हैं।
तो आपने मेरी चेतावनी को गंभीरता से लिया या नहीं। मुंबई जाना तो मराठी मानुष बनके वरना आपका मालिक ठाकुर नहीं ठाकरे है, याद रखिये।