संवाद में वो क्षमता है कि वह विषाद को भी योग में बदल दे. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद इसका ज्वलंत उदाहरण है. भय और शोकग्रस्त अर्जुन के मन का विषाद यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच की वार्ता से विषादयोग बन सकता है और गीता जैसे पवित्र ज्ञान की उत्पत्ति हो सकती है, और वह भय और मुक्त से मुक्त होकर महाभारत की चुनौती स्वीकार करने को तैयार हो सकता है, तो वर्तमान भारत में क्या अब अयोध्या जैसे मसले का हल परस्पर वार्ता से नहीं निकल सकता? यदि वार्ता इतनी ही निरर्थक है, तो कश्मीर के मसले पर बार-बार वार्ता की क्या आवश्यकता है. मैं जहाँ तक समझता हूँ, वार्ता की सफलता पूरी तरह वार्ताकारों के मनःस्थिति पर निर्भर करता है. यदि हम सुलझाने और सुलझने के लिए बैठते हैं और दोनों एक ही भावनात्मक आवेग से आच्छादित होते हैं तो वहाँ शब्द, अर्थ, तर्क और प्रमाण एक ही दिशा में चलते हैं. कितने वर्षों से हम (हिंदू-मुस्लिम) इस देश में एक साथ रह रहे हैं, लेकिन एक-दूसरे को अब समझने जानने और परखने में अलग-अलग क्यों रह जाते हैं? रीति-रिवाजों, भाषा और बोली, खान-पान, पहनावा एक-दूसरे को समझने में बाधा क्यों बन जाता है? हम क्यों कुरान और गीता की नज़र से उस धुंध को दूर करने की कोशिश नहीं करते जो हमारे आपसी टकराव का कारण बनती है? आरती और अज़ान के बीच की दूरियों को कायम रखकर क्या कौमी एकता हासिल कर सकते हैं? जब-जब हम एक होना चाहते हैं किसी आस्था की ज़मीन पर आपसी जज़्बात में, तब बीच में कुछ लोग क्यों आ जाते हैं? १८५७ में जब रामचरणदास और अक्खन मियां और अमीर अली में एक समझौता हो रहा था और दोनों दो कौमों की दूरियाँ दूर करने की कोशिश कर रहे थे, तब अंग्रेजों ने अमीर अली और रामचरनदास को रामकोट के टीले पर इमली के पेड़ से क्यों लटका दिया था? क्या ये दूरी पाटने की कोशिश देश द्रोह था? क्या वे लोग जो अयोध्या को सेतु बनाकर दोनों कौमों के बीच सद्भाव का सेतु निर्माण कर रहे थे वे गलत थे? आज परिस्तिथियाँ फिर एक बार वही बनी हैं. महंत ज्ञानदास और हाशिम चचा अयोध्या के इस विवाद का अंत आपसी वार्ता से चाहते हैं लेकिन कुछ लोग फिर अंग्रेजों की तरह इस बनते माहौल को लेकर परेशान हैं. यदि अयोध्या वार्ता सर्वानुमति के समाधान तक पहुँचती है तो मुझे विश्वास है कि कश्मीर की समस्या भी इसी तरह के लोग कुछ ऐसे ही माहौल में हल कर सकेंगे. वार्ता के विरोधी देश की मानसिकता को समझें देश अब इस बिंदु पर संघर्ष नहीं, संवाद और समाधान चाहता है.
Monday, October 18, 2010
Monday, October 4, 2010
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अयोध्या विवाद के समाधान में सार्थक पहल |
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महन्त श्री ज्ञानदास का मुसलिम पक्ष के प्रमुखवादी श्री हाशिम अंसारी तथा श्री त्रिलोकीनाथ पाण्डेय, जो श्री देवकीनन्दन अग्रवाल के स्थान पर विराजमान श्री रामलला की ओर से मुकदमें में पक्षकार है, का निर्मोही अखाडे़ के महन्त श्री भास्कर दास से बातचीत को इस मसले के सर्वसम्मत समाधान की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण और सार्थक पहल के रूप में देखा जा सकता है।
आज पूरे देश के सभी सम्प्रदायों के प्रमुख तथा राजनैतिक नेताओं का मत जब इस मसले के सर्वसम्मत समाधान का हो, तो निश्चित ही इसे एक अवसर के रूप में लिया जाना चाहिए। यद्यपि सभी पक्षों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में जाने के संकेत मिल रहे हैं, फिर भी जो प्रयास शुरू हुआ है, सभी पक्षों को चाहिए कि इसे वे जनरन्दाज न करें और यथा संभव अपना सहयोग प्रदान करें क्योंकि हारजीत की प्रतिद्वन्दिता से बचने का यही एक मात्र उपाय है। जैसे आजादी की लड़ाई सबने मिलकर लड़ी, वैसे ही जन्मभूमि हमारी आस्था से जुड़ी एक पवित्र भूमि है, का निपटारा भी मिलजुलकर हो। मन्दिर तभी बने पायेगा, जब हम अपने अधिकारों की हीन-भावना से ऊपर उठकर राष्ट्र और सांस्कृतिक आस्था के लिये समर्पित होकर काम करेंगे।
क्या कोई ऐसा उपाय नहीं हो सकता कि उस आस्था पर चलने वाली आध्यात्मिक गतिविधियों को सार्वभौमिक बनाया जाये और हम सभी अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप विराजमान श्री रामलला के विशाल और भव्य मन्दिर में उनकी पूजा, अर्चना, श्रद्धा, सेवा तथा सत्कार समर्पित कर सकें। यदि जन्माष्टमी और गणेश चतुर्थी की खुशियों को हम लक्ष्मी नारायण और शंकर जी के मन्दिरों में मना सकते हैं तो अन्य सम्प्रदायों की तीज त्यौहारों की खुशियाँ भी राजाधिराज भगवान श्री राम राघवेन्द्र के बाल विग्रह के सम्मुख क्या नही मना सकते।
क्या मन्दिर के प्रबंधन और पूजन, अर्चन को यथा संभव सनातन धर्म की मर्यादा के अनुरूप व्यापक और सार्वदेशिक नहीं बनाया जा सकता हैं। निश्चित ही इन संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए। विराजमान श्री रामलला के जन्मभूमि से जुडे़ सभी मसले जब लगभग समाप्त हो गये हों तो केवल पूजा, प्रबंध और स्वामित्व को लेकर आपस में उलझना, वर्तमान पीढ़ी को निराश करना होगा। उस पुण्य भूमि का बंटवारा तो किसी कीमत पर सहन नहीं होगा।
रमेश चन्द्र त्रिपाठी अथवा भास्कर दास कोई भी उस भूमि का वंटवारा नही चाहेंगे। जहाँ तक मुसलिमों की बात है तो उन्होंने उस स्थान से (जहाँ श्री रामलला विराजमान है) हटकर अन्य किसी भूखण्ड की मांग कभी नही की, कोई दूसरी मसजिद यहाँ, वहाँ, कहीं भी बनाई जाये, इस तरह की मांग कभी नही की। बदले में दूसरी मसजिद बनाकर देने की मांग भी उनकी ओर से कभी नहीं आई। यह प्रस्ताव तो समय-समय पर बिचौलियों और हिन्दू राजनेताओं के द्वारा उठाई गई। यद्यपि आपसी बातचीत का रास्ता इतना आसान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है। बातचीत में धार्मिक नेता ही शामिल हो तो उचित होगा।
एक नौकरशाह जो प्रायः ऐसे मौकों पर अयोध्या दिल्ली और पटना की दौड़ शुरू कर देते हैं, को समाधान की प्रक्रिया से अलग रखना ही उचित होगा। अयोध्या तथा देश के अन्य वैष्णव सन्तों को इस ऐतिहासिक विवाद को समाप्त करने के लिये अपने आग्रहों से ऊपर उठकर आगे आना चाहिए। मुस्लिम पक्ष के सभी आलिमों और इमामों की भी अन्तर्राष्ट्रीय स्थान पर समाधान की जमीन तैयार करने में मदद करनी चाहिए। अब हमें मिलजुलकर धर्म और अध्यात्म की दूरियों को परस्पर वार्ता और संवाद से दूर करने की दिशा में सोचना चाहिए। मुझे तो लगता है कि यदि अयोध्या विवाद को हिन्दू-मुस्लिम धर्माचार्य आपसी बातचीत से हलकर लें तो उनकी जो विश्वसनीयता जन साधारण में पैदा होगी उसकी लाभ पाकिस्तान, अलगाववाद, आतंकवाद तथा कष्मीर जैसे मसलों के समाधान में लिया जा समाधान में लिया जा सकेगा।
यह फैसला उस समय आया है जब देश में तमाम सनातन धर्मावलम्वी अपने-अपने पितरों के श्रद्धा अर्पण के लिये श्रृाद्ध कर रहे हैं। भगवान श्री राम हमारे आराध्य ही नहीं, इस देश के राष्ट्र पुरूष और पूर्वज भी हैं। न्यायालय ने तो इस अवसर पर उन्हें अपनी श्रद्धा के न्याय पुष्प चढ़रकर अपना दायित्य पूरा किया अब हमें अपनी श्रद्धा के मान उस इमाम के प्रति पूरी करनी है जिसके वजूद पर हमें (हिन्दुस्तान) नाज है।
‘‘राम के वजूद पर है, हिन्दोस्ताँ को नाज।
अहले नजर समझते है, उनको इमामें हिन्द।।