Thursday, March 18, 2010

मंथन

हरिद्वार का कुंभ मेला प्रगति पर है। अब तक दो शाही स्नान निर्विघ्न संपन्न हो चुके हैं। लाखों की संख्या में देश-विदेश के यात्री कुंभ में आयोजित विभिन्न धार्मिक, आध्यात्मिक आयोजनों का लाभ उठा रहे हैं। कुंभ का नाम आते ही हम सबका ध्यान उस मंथन की ओर चला जाता है, जिसका वर्णन पुराणों में किया गया है। देवता और दानव एक ही पिता की संतानें हैं लेकिन स्वभाव अलग-2 हैं। एक पिता की संतानों का स्वभाव एक होगा यह सोचना सर्वथा गलत है। कष्यप हों या विश्वश्रवा दोनों ऋषि थे और तपःपूत साधना के प्रस्तर स्तंभ भी। वैदिक परंपरा के वे ऐसे संत थे, जिनकी गणना श्रेष्ठ मुनियों में की जाती है। परंतु दोनों ही क्रमषः देव और दानव तथा रावण और विभिषण के पिता थे। देवताओं की लाख उदारता के बावजूद न तो दानवों के स्वभाव में कोई सुधार हुआ और न ही विभिषण की विनम्रता रावण को अनैतिक बनने से रोक सकी।


संभवतः मंथन का स्वभाव ही है कि वह बिना विपरीत विचारधाराओं के घटित नहीं हो पाता। आखिर मंथन के लिये एक मथानी और दो सिरे और उन दो सिरों पर दो विपरीत दिशाओं की ओर मुंह किये व्यक्ति चाहिये होते हैं जो उसे केवल अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हैं। इसी खींचतान में मथानी चलती रहती है। मथानी की इस गति से बहुत कुछ हिल जाता है। जब वर्षों से स्थिर किसी भी तत्व में हलचल होती है तो कुछ न कुछ तो निकलता ही है। अच्छा भी
, बुरा भी। अच्छा सबको स्वीकार्य होता है और बुरे से बचने की कोषिष की जाती है। सब कुछ प्रकट होने देने के लिये एक बड़े धैर्य की जरूरत होती है। समुद्र का मंथन इस सृष्टि को बहुत कुछ दे गया और वह सब कुछ उनमें बंट गया जो उसके पात्र थे। झगड़ा खड़ा हुआ तो विष और अमृत को लेकर। विष से जहां सब बचना चाहते थे वहीं अमृत को केवल अपने अधिकार में लेना। भला हो भगवान षंकर का जो विष पीकर सबको संकट से बचा लिया। विष का संकट तो षिव में समा गया लेकिन अमृत हड़पने की होड़ का जो संकट पैदा हुआ उससे इन देव-दानवों को कौन बचाये...............

कुछ विशेष कार्य आन पड़ा है, शेष चर्चा कल

कुंभ नगरी हरिद्वार से आपका

चिन्मयानंद

1 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

अच्छी प्रस्तुति,धन्यवाद.

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