संवाद में वो क्षमता है कि वह विषाद को भी योग में बदल दे. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद इसका ज्वलंत उदाहरण है. भय और शोकग्रस्त अर्जुन के मन का विषाद यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच की वार्ता से विषादयोग बन सकता है और गीता जैसे पवित्र ज्ञान की उत्पत्ति हो सकती है, और वह भय और मुक्त से मुक्त होकर महाभारत की चुनौती स्वीकार करने को तैयार हो सकता है, तो वर्तमान भारत में क्या अब अयोध्या जैसे मसले का हल परस्पर वार्ता से नहीं निकल सकता? यदि वार्ता इतनी ही निरर्थक है, तो कश्मीर के मसले पर बार-बार वार्ता की क्या आवश्यकता है. मैं जहाँ तक समझता हूँ, वार्ता की सफलता पूरी तरह वार्ताकारों के मनःस्थिति पर निर्भर करता है. यदि हम सुलझाने और सुलझने के लिए बैठते हैं और दोनों एक ही भावनात्मक आवेग से आच्छादित होते हैं तो वहाँ शब्द, अर्थ, तर्क और प्रमाण एक ही दिशा में चलते हैं. कितने वर्षों से हम (हिंदू-मुस्लिम) इस देश में एक साथ रह रहे हैं, लेकिन एक-दूसरे को अब समझने जानने और परखने में अलग-अलग क्यों रह जाते हैं? रीति-रिवाजों, भाषा और बोली, खान-पान, पहनावा एक-दूसरे को समझने में बाधा क्यों बन जाता है? हम क्यों कुरान और गीता की नज़र से उस धुंध को दूर करने की कोशिश नहीं करते जो हमारे आपसी टकराव का कारण बनती है? आरती और अज़ान के बीच की दूरियों को कायम रखकर क्या कौमी एकता हासिल कर सकते हैं? जब-जब हम एक होना चाहते हैं किसी आस्था की ज़मीन पर आपसी जज़्बात में, तब बीच में कुछ लोग क्यों आ जाते हैं? १८५७ में जब रामचरणदास और अक्खन मियां और अमीर अली में एक समझौता हो रहा था और दोनों दो कौमों की दूरियाँ दूर करने की कोशिश कर रहे थे, तब अंग्रेजों ने अमीर अली और रामचरनदास को रामकोट के टीले पर इमली के पेड़ से क्यों लटका दिया था? क्या ये दूरी पाटने की कोशिश देश द्रोह था? क्या वे लोग जो अयोध्या को सेतु बनाकर दोनों कौमों के बीच सद्भाव का सेतु निर्माण कर रहे थे वे गलत थे? आज परिस्तिथियाँ फिर एक बार वही बनी हैं. महंत ज्ञानदास और हाशिम चचा अयोध्या के इस विवाद का अंत आपसी वार्ता से चाहते हैं लेकिन कुछ लोग फिर अंग्रेजों की तरह इस बनते माहौल को लेकर परेशान हैं. यदि अयोध्या वार्ता सर्वानुमति के समाधान तक पहुँचती है तो मुझे विश्वास है कि कश्मीर की समस्या भी इसी तरह के लोग कुछ ऐसे ही माहौल में हल कर सकेंगे. वार्ता के विरोधी देश की मानसिकता को समझें देश अब इस बिंदु पर संघर्ष नहीं, संवाद और समाधान चाहता है.
Monday, October 18, 2010
Monday, October 4, 2010
[+/-] |
अयोध्या विवाद के समाधान में सार्थक पहल |
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महन्त श्री ज्ञानदास का मुसलिम पक्ष के प्रमुखवादी श्री हाशिम अंसारी तथा श्री त्रिलोकीनाथ पाण्डेय, जो श्री देवकीनन्दन अग्रवाल के स्थान पर विराजमान श्री रामलला की ओर से मुकदमें में पक्षकार है, का निर्मोही अखाडे़ के महन्त श्री भास्कर दास से बातचीत को इस मसले के सर्वसम्मत समाधान की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण और सार्थक पहल के रूप में देखा जा सकता है।
आज पूरे देश के सभी सम्प्रदायों के प्रमुख तथा राजनैतिक नेताओं का मत जब इस मसले के सर्वसम्मत समाधान का हो, तो निश्चित ही इसे एक अवसर के रूप में लिया जाना चाहिए। यद्यपि सभी पक्षों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में जाने के संकेत मिल रहे हैं, फिर भी जो प्रयास शुरू हुआ है, सभी पक्षों को चाहिए कि इसे वे जनरन्दाज न करें और यथा संभव अपना सहयोग प्रदान करें क्योंकि हारजीत की प्रतिद्वन्दिता से बचने का यही एक मात्र उपाय है। जैसे आजादी की लड़ाई सबने मिलकर लड़ी, वैसे ही जन्मभूमि हमारी आस्था से जुड़ी एक पवित्र भूमि है, का निपटारा भी मिलजुलकर हो। मन्दिर तभी बने पायेगा, जब हम अपने अधिकारों की हीन-भावना से ऊपर उठकर राष्ट्र और सांस्कृतिक आस्था के लिये समर्पित होकर काम करेंगे।
क्या कोई ऐसा उपाय नहीं हो सकता कि उस आस्था पर चलने वाली आध्यात्मिक गतिविधियों को सार्वभौमिक बनाया जाये और हम सभी अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप विराजमान श्री रामलला के विशाल और भव्य मन्दिर में उनकी पूजा, अर्चना, श्रद्धा, सेवा तथा सत्कार समर्पित कर सकें। यदि जन्माष्टमी और गणेश चतुर्थी की खुशियों को हम लक्ष्मी नारायण और शंकर जी के मन्दिरों में मना सकते हैं तो अन्य सम्प्रदायों की तीज त्यौहारों की खुशियाँ भी राजाधिराज भगवान श्री राम राघवेन्द्र के बाल विग्रह के सम्मुख क्या नही मना सकते।
क्या मन्दिर के प्रबंधन और पूजन, अर्चन को यथा संभव सनातन धर्म की मर्यादा के अनुरूप व्यापक और सार्वदेशिक नहीं बनाया जा सकता हैं। निश्चित ही इन संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए। विराजमान श्री रामलला के जन्मभूमि से जुडे़ सभी मसले जब लगभग समाप्त हो गये हों तो केवल पूजा, प्रबंध और स्वामित्व को लेकर आपस में उलझना, वर्तमान पीढ़ी को निराश करना होगा। उस पुण्य भूमि का बंटवारा तो किसी कीमत पर सहन नहीं होगा।
रमेश चन्द्र त्रिपाठी अथवा भास्कर दास कोई भी उस भूमि का वंटवारा नही चाहेंगे। जहाँ तक मुसलिमों की बात है तो उन्होंने उस स्थान से (जहाँ श्री रामलला विराजमान है) हटकर अन्य किसी भूखण्ड की मांग कभी नही की, कोई दूसरी मसजिद यहाँ, वहाँ, कहीं भी बनाई जाये, इस तरह की मांग कभी नही की। बदले में दूसरी मसजिद बनाकर देने की मांग भी उनकी ओर से कभी नहीं आई। यह प्रस्ताव तो समय-समय पर बिचौलियों और हिन्दू राजनेताओं के द्वारा उठाई गई। यद्यपि आपसी बातचीत का रास्ता इतना आसान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है। बातचीत में धार्मिक नेता ही शामिल हो तो उचित होगा।
एक नौकरशाह जो प्रायः ऐसे मौकों पर अयोध्या दिल्ली और पटना की दौड़ शुरू कर देते हैं, को समाधान की प्रक्रिया से अलग रखना ही उचित होगा। अयोध्या तथा देश के अन्य वैष्णव सन्तों को इस ऐतिहासिक विवाद को समाप्त करने के लिये अपने आग्रहों से ऊपर उठकर आगे आना चाहिए। मुस्लिम पक्ष के सभी आलिमों और इमामों की भी अन्तर्राष्ट्रीय स्थान पर समाधान की जमीन तैयार करने में मदद करनी चाहिए। अब हमें मिलजुलकर धर्म और अध्यात्म की दूरियों को परस्पर वार्ता और संवाद से दूर करने की दिशा में सोचना चाहिए। मुझे तो लगता है कि यदि अयोध्या विवाद को हिन्दू-मुस्लिम धर्माचार्य आपसी बातचीत से हलकर लें तो उनकी जो विश्वसनीयता जन साधारण में पैदा होगी उसकी लाभ पाकिस्तान, अलगाववाद, आतंकवाद तथा कष्मीर जैसे मसलों के समाधान में लिया जा समाधान में लिया जा सकेगा।
यह फैसला उस समय आया है जब देश में तमाम सनातन धर्मावलम्वी अपने-अपने पितरों के श्रद्धा अर्पण के लिये श्रृाद्ध कर रहे हैं। भगवान श्री राम हमारे आराध्य ही नहीं, इस देश के राष्ट्र पुरूष और पूर्वज भी हैं। न्यायालय ने तो इस अवसर पर उन्हें अपनी श्रद्धा के न्याय पुष्प चढ़रकर अपना दायित्य पूरा किया अब हमें अपनी श्रद्धा के मान उस इमाम के प्रति पूरी करनी है जिसके वजूद पर हमें (हिन्दुस्तान) नाज है।
‘‘राम के वजूद पर है, हिन्दोस्ताँ को नाज।
अहले नजर समझते है, उनको इमामें हिन्द।।
Friday, September 24, 2010
[+/-] |
फैसले में देरी दुर्भाग्यपूर्ण |
राम जन्मभूमि पर फैसले को लेकर जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय में गतिरोध उत्पन्न किया जा रहा है, उसे लेकर देश भर के साधु संतों में व्यापक क्षोभ है। राम जन्मभूमि पर निर्णय का राष्ट्र अरसे से प्रतीक्षा कर रहा है। जिस फैसले को लेकर अब तक 12 बार न्यायिक पीठों का गठन हुआ है। 36 न्यायाधीशों ने व्यापक विचार किया है। और जो बहस दर बहस बरसों की विचार प्रक्रिया के बाद निर्णय तक पहुंचा हो, उस फैसले को टालने का निर्णय उचित नहीं है। मैं सर्वोच्च न्यायालय से विनम्र आग्रह करता हूं कि वो किसी एक गैर जिम्मेदार व्यक्ति की अपील के चक्कर में न फंसे।
हम जानते हैं कि फैसलों में हो रही देरी के कारण जो स्थितियां निर्मित होती हैं, वो देश के लिए दुर्भाग्य पूर्ण होती हैं। सन 1992 में भी इसी तरह फैसला सुरक्षित कर लिया गया था। समय सीमा में निर्णय न देने के कारण हालात ऐसे बने कि बाबरी मस्जिद को कारसेवकों द्वारा गिरा दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय एक उच्च और उदार संस्था है। उसे चाहिए कि देश के सार्वभौमिकता व जन साधारण की भावनाओं ध्यान में रखते हुए 28 सितंबर को निर्णय रोकने की अपील पर विचार न करे। बल्कि फैसला देकर देश के मन में राम जन्मभूमि को लेकर जो संशय है, उसे दूर करे। ऐसा करने से न्याय की और न्यायपालिका की इज्जत बढ़ेगी और लोगों का भरोसा बढ़ेगा।
सवा सौ सालों से चलने वाला मुकदमा फैसले के मोड़ पर पहुंच गया है। मैं समझता हूं कि फैसला जितना साफ सुधरा और स्पष्ट होगा उतना ही मसले के समाधान में मदद मिलेगी। लेकिन, फैसले में देरी लोगों को आशंकित करेगी। मेरा मानना है कि फैसले को लेकर किसी पक्ष में कोई तनाव नहीं है, और न कोई उन्माद है। मीडिया और सरकार इस मामले को ज्यादा तूल दे रही है। फैसले का स्वागत करने के लिए दोनों पक्ष तैयार है। नहीं तो सुप्रीम कोर्ट का रास्ता खुला हुआ है। लेकिन, फैसले को अटकाने की कोशिश दुर्भाग्यपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट को अब 28 सितंबर को इन नापाक कोशिशों से बचते हुए राम जन्म भूमि पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
Sunday, August 29, 2010
[+/-] |
भगवा आतंक? |
भगवा शब्द एक रंग का वाचक है, वह तो एक रंग है, सिर्फ रंग, जिसे उगते हुए सूरज में अथवा अग्नि की लपटों अथवा कुछ बहुत कम खिलने वाले फूलों में देखा जाता है। केसर से मिलता जुलता होने के कारण कुछ लोगों ने जहाँ इसे केसरिया कहाँ वही अंग्रेजी में इसे Saffron कहा जाने लगा। भारतीय धर्म, दर्षन, और सहित्य ने इसे पवित्रता और बोध (ज्ञान) के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया। लेकिन, कभी भी इस रंग को किसी जाति धर्म, मज़हब अथवा क्षेत्र से देश - विदेश में नही जोड़ा गया। जहाँ तक इस रंग के प्रयोग का प्रश्न है, सबसे पहले भारत में इसका उपयोग पावन प्रतीकों के रूप में जैसे, ध्वज, पताका, पूजा के वस्त्र और सन्यासियों के परिधान के लिये किया गया, लेकिन इसका उपयोग अन्य देशों में भी खुलकर किया जाता रहा। जैसे अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों में इस रंग का उपयोग विभिन्न वस्तुओं की ओर, जन साधारण ध्यान आकर्षित करने के लिये किया गया। आज भी उन देशों में जहां भी कोई निर्माण कार्य चल रहा होता है अथवा सार्वजनिक आवागमन का जहाँ निषेध करना हो, वहाँ इस रंग का उपयोग होता है। दिल्ली अथवा देश के दूसरे तमाम मेट्रोपोलिटन शहरों में चल रहे किसी सार्वजनिक काम में लगे कर्मियों का जैकेट भगवा रंग का होता है। एक ऐसा रंग जो व्यक्ति के मन को सात्विक सृजन की प्रेरणा देता हो, ज्ञान और अभ्युदय का अहसास कराता हो, और उगते हुए सूर्य तथा जाज्वल्यमान मान ऊर्जा (अग्नि) का प्रतिनिधित्व करता हो, उसे आतंक से जोड़ना कितना उचित है, यह तो चिदम्बरम ही बता सकते हैं लेकिन यह स्पष्ट है कि मीडिया में इस शब्द के उछालने के पीछे कुछ बड़े खतरनाक किस्म के इरादे अवश्य हैं।
वर्षों पूर्व जब नक्सलवाड़ी के लोगों ने बंगाल प्रदेश की सत्तारूढ़ कांग्रेस के विरूद्ध हिंसक रुख अपनाया था तो उसे नक्सलवाद का नाम दिया गया। जब पंजाब में असंतोष भड़का और हिंसक रूप में सामने आया तो अलगाववाद के नाम से जाना गया। चीन से आये विदेशी विचार के समर्थकों को माओवादी कहा गया। समय-समय पर उठने वाले हिंसक आन्दोलनों को अलग-अलग नामों से जाना गया। विश्व के अनेक मुस्लिम देशों की हिंसक राजनीति ने इस्लामिक आतंकवाद की ख्याति अर्जित की, परन्तु जब देश के 25 प्रान्तों के 229 जनपद नक्सलवाद से जूझ रहें हों, आन्ध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में PWG अपना काम कर रही हो और भारत-नेपाल की सीमा पर माओवादी अपना जाल बुन रहे हों, दक्षिण के लिट्टे और केरल मुस्लिम लीग हिंसा और दारूल इस्लाम का बीज बो रही हों, आई. एस.आई. तथा सिमी जैसे संगठन देश के सामाजिक सौहार्द्ध को पलीता लगा रहे हों, तो अचानक भगवा-आतंक के राग की जरूरत कैसे पड़ गई, यह तो समझ के बाहर है। अल्पसंख्यक को हर तरह की सुविधा, अनुदान, विकास के अवसर यहाँ तक कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण, कानूनों में संशोधन करके भी जब चुनावी दृष्टि से उनका समर्थन नहीं जुट पाया तो अब रंग की राजनीति में उतर कर एक संप्रदाय विशेश के मत को अपने पक्ष में करने के लिए भगवा शब्द का सृजन देश के हित में कितना है यह तो देश बाद में बतायेगा लेकिन कहीं इसके पहले ही रंगों की यह लड़ाई पूरे देश की धरती को लाल न कर दे। जब लाल-सलाम इस देश से विदा हो रहा हो और धरती की हरियाली (समृद्धि) देश की धरती पर पनप रही हो तो एक रंग को देश विरोधी हिंसक प्रवृति से जोड़ना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
चिदम्बरम को शायद पता हो कि संविधान सभा में भारत के राष्ट्रध्वज का भगवा रंग के होने का प्रस्ताव आया था। पहले पूरा झंडा भगवा रंग में होना निश्चित हुआ बाद में उसे सबसे ऊपर की पट्टी में रखा गया।
गृह मंत्री महोदय के मन में यदि इस रंग के साथ कुछ संगठनों के सम्बन्ध को लेकर कोई आग्रह है तो इसका खुलासा करना चाहिए। क्या है यह भगवा आतंक और कौन लोग हैं इसके पीछे ? जब तक वे इसे स्पष्ट नहीं करते तब तक वे देश को गुंमराह करने का अपराध करते रहेंगें।
यदि उनका इशारा उन हिन्दू संगठनों की और है जो समय-समय पर अपनी आस्था और अस्मिता के लिये संघर्ष करते है, तो यह कहने का मुझे अधिकार है कि उनमें से किसी संगठन ने न तो अब तक हिंसा का रास्ता अपनाया है और न ही देश के संविधान अथवा लोकतांत्रिक व्यवस्था से विद्रोह ही किया है। यदि वे राम जन्म भूमि, राम सेतू, गौरक्षा, गंगा रक्षा के लिये संगठित होकर संघर्ष करते हैं अथवा धर्मान्तरण, घुसपैठ, गौहत्या आदि प्रशासनिक शिथिलता के विरूद्ध क्षुब्द मन से सामूहिक आक्रोश व्यय करते है तो उसे आतंक कहना निहायत घटिया सोच के अलावा कुछ नहीं है।
चिदम्बरम् यदि राम जन्म भूमि मामले में न्यायालय के फैसले के बाद उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिये इस शब्द का उपयोग एक भूमिका के रूप में कर रहें हैं तो मैं कहूँगा कि यह उनकी एक भयंकर भूल होगी, जिसकी कीमत देश को चुकानी पड़ेगी। देश आज जिन स्थितियों से गुजर रहा है उसमें इस प्रकार के शब्द का प्रयोग वह भी देश के गृह मंत्री के द्वारा बड़ा खतरनाक साबित हो सकता है। चिदम्बरम जी एक योग्य व्यक्ति हैं। उन्हें शब्दों का प्रयोग करते समय बड़ी शालीनता और सजगता बरतनी चाहिए।
Monday, March 22, 2010
Thursday, March 18, 2010
[+/-] |
मंथन |
हरिद्वार का कुंभ मेला प्रगति पर है। अब तक दो शाही स्नान निर्विघ्न संपन्न हो चुके हैं। लाखों की संख्या में देश-विदेश के यात्री कुंभ में आयोजित विभिन्न धार्मिक, आध्यात्मिक आयोजनों का लाभ उठा रहे हैं। कुंभ का नाम आते ही हम सबका ध्यान उस मंथन की ओर चला जाता है, जिसका वर्णन पुराणों में किया गया है। देवता और दानव एक ही पिता की संतानें हैं लेकिन स्वभाव अलग-2 हैं। एक पिता की संतानों का स्वभाव एक होगा यह सोचना सर्वथा गलत है। कष्यप हों या विश्वश्रवा दोनों ऋषि थे और तपःपूत साधना के प्रस्तर स्तंभ भी। वैदिक परंपरा के वे ऐसे संत थे, जिनकी गणना श्रेष्ठ मुनियों में की जाती है। परंतु दोनों ही क्रमषः देव और दानव तथा रावण और विभिषण के पिता थे। देवताओं की लाख उदारता के बावजूद न तो दानवों के स्वभाव में कोई सुधार हुआ और न ही विभिषण की विनम्रता रावण को अनैतिक बनने से रोक सकी।
संभवतः मंथन का स्वभाव ही है कि वह बिना विपरीत विचारधाराओं के घटित नहीं हो पाता। आखिर मंथन के लिये एक मथानी और दो सिरे और उन दो सिरों पर दो विपरीत दिशाओं की ओर मुंह किये व्यक्ति चाहिये होते हैं जो उसे केवल अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हैं। इसी खींचतान में मथानी चलती रहती है। मथानी की इस गति से बहुत कुछ हिल जाता है। जब वर्षों से स्थिर किसी भी तत्व में हलचल होती है तो कुछ न कुछ तो निकलता ही है। अच्छा भी, बुरा भी। अच्छा सबको स्वीकार्य होता है और बुरे से बचने की कोषिष की जाती है। सब कुछ प्रकट होने देने के लिये एक बड़े धैर्य की जरूरत होती है। समुद्र का मंथन इस सृष्टि को बहुत कुछ दे गया और वह सब कुछ उनमें बंट गया जो उसके पात्र थे। झगड़ा खड़ा हुआ तो विष और अमृत को लेकर। विष से जहां सब बचना चाहते थे वहीं अमृत को केवल अपने अधिकार में लेना। भला हो भगवान षंकर का जो विष पीकर सबको संकट से बचा लिया। विष का संकट तो षिव में समा गया लेकिन अमृत हड़पने की होड़ का जो संकट पैदा हुआ उससे इन देव-दानवों को कौन बचाये...............
कुछ विशेष कार्य आन पड़ा है, शेष चर्चा कल
कुंभ नगरी हरिद्वार से आपका
चिन्मयानंद
Saturday, March 6, 2010
[+/-] |
नानाजी - परभनी से परब्रह्म |
पिछले कुछ दिनों से अपनी संस्थाओं में कार्य की व्यस्तता के कारण बाकी गतिविधियों से दूर रहा। कल शाम को जब हेमन्त का संदेश आया तब पता चला कि नानाजी अब नहीं रहे। नाना जी का न कोई नाती था ना पोता। यह अधिकार बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है कि रिश्ता किसी से नहीं पर नाता सबसे। संघ परिवार में उनकी जो प्रतिष्ठा थी वह तो थी ही परन्तु जो लोग संघ परिवार के दर्शन और कार्यशैली को पसन्द नहीं करते थे, वे भी नानाजी को चाहते थे। उनके मुरीदों की सूची में जहाँ मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर जैसे लोग थे वहीं रामनाथ, गोयनका और प्रभाष जोशी भी थे। संघ जैसी संस्था के दीर्घजीवी और व्यापक होने के पीछे कईं लोगों का तप और उनकी साधना हो सकती है, लेकिन नानाजी का संघ के लिये त्याग और उसकी सामाजिक अवधारणाओं की व्यापकता के पीछे निःसंदेह नानाजी खड़े थे। व्यक्ति निर्माण संघ का संकल्प है परन्तु उस कसौटी पर ’सदा वत्सले मातृ भूमे’ की उदात्तता हम सबमें कितनी है। वे एक स्वयंसेवक, राजनेता, समाजसेवी, लेखक, सम्पादक, समन्वयक, संगठक और न जाने कितनी जिम्मेदारियों को निभाते रहे लेकिन उनके मन का परिव्राजक निरन्तर चलता रहा। उनको कोई पद-प्रतिष्ठा कभी बाँध नहीं सकी। 60 वर्ष की आयु के बाद सत्ता से हटकर समाज का काम करना चाहिये, यह उनकी धारणा ही नहीं विश्वास था, जिस पर वह जीवन के अन्तिम क्षणों तक कायम रहे। गांधी का ग्राम स्वराज्य उनके संकल्पों तक ही सीमित रहा, लेकिन नानाजी का ग्राम स्वराज्य एक विश्वविद्यालय बन गया। कभी उन्होंने बलरामपुर के निकटवर्ती गाँवों में उस ग्राम स्वराज्य को मूर्त रूप देते हुए जयप्रभा जैसे गाँव की नींव रखी तो कभी चित्रकूट जाकर कामद गिरी की चट्टानों में श्रीराम प्रभु के चरण चिन्हों की खोज करते रहे। राम के भाई भरत तो चित्रकूट से अयोध्या लौट आये थे लेकिन नानाजी जो एक बार चित्रकूट गये तो कभी नहीं लौटे। यहाँ तक कि जब सारा देश रामजन्मभूमि की लड़ाई लड़ रहा था तब भी नानाजी चित्रकूट के राम से अलग नहीं हुए। तुलसी को जहाँ जनभाषा में रामायण लिखने की प्रेरणा मिली वहीं जन के जीवन की खोज नानाजी अपने जीवन के अन्त तक करते रहे।जब भी मैं उनसे मिला, उन्होंने चित्रकूट आने का आदेश दिया। मुझसे ही नहीं वे सभी से चित्रकूट आने को कहते थे। मैं भारत सरकार में गृहराज्य मंत्री था और आपदा प्रबंधन विभाग मेरे पास था। चित्रकूट की मंदाकिनी में बाढ़ आई। सब कुछ डूब गया। नानाजी ने फोन किया- कहाँ हो भाई, चित्रकूट डूब रहा है और तुम लोग कहीं नज़र नहीं आ रहे हो। क्या यही है तुम्हारा आपदा प्रबंधन। मैं वहाँ गया। नानाजी अस्वस्थ थे। उनका जर्जर शरीर इस योग्य नहीं था कि वह बाढ़ग्रस्त इलाके को देखने जा पाते। लेकिन उनको चैन कहाँ। कहाँ जाना है, क्या देखना है, क्या करना है सब उनकी ज़बान पर था। एक हाथी डूब कर मर गया था। हमारे पास ऐसा कोई नियम नहीं था जिसके अर्न्तगत उसकी क्षतिपूर्ति की जाती, पर नानाजी का आदेश- ’ अरे। यह हाथी नहीं था। यह तो चित्रकूट का गणेश था, शुभंकर था।’ मछुआरेां को पूरी मदद मिलनी चाहिये, यह वही लोग हैं जिन्होंने श्रीराम को गंगा पार कराई थी। वे गाँव से जुड़ी हर वस्तु, व्यक्ति और संस्कृति से लगाव रखते थे। कहते थे, गाँव है तो देश है। पंडित दीन दयाल, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और महात्मा गाँधी जहाँ आकर मिलते थे वह नानाजी ही थे। परभनी से लेकर परब्रह्म तक की उनकी यात्रा का अनोखा मार्ग उनका अपना बनाया हुआ था और उस पथ के वे अकेले पथिक थे। देश उस पथ पर कितना चल सकेगा कहना कठिन है लेकिन वह प्रकाश पथ हर भूखे, प्यासे, नंगे और पिछड़े गाँव के निकट जाने की राह दिखायेगा।
Saturday, February 6, 2010
[+/-] |
पेशवाई |
इस समय हरिद्वार कुंभ की चर्चा है। मैंने सोचा इसी को आपके साथ बाँटू। हरिद्वार का वातावरण एक बड़े मेले की तैयारी में लगातार करवटें ले रहा है। आये दिन अखाड़ों के समाचार से यहाँ के अखबार रंगे रहते हैं। कभी किसी की पेशवाई को लेकर तो कभी किसी मंडलेश्वर के अभिषेक को लेकर। हर अखाड़ा अपनी शक्ति और वैभव का प्रदर्शन करके दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश में है। माघी पूर्णिमा के दिन 30 जनवरी को जब जूना अखाड़े की पेशवाई निकली तो ऐसा लगा मानो आकाश के सभी तारे धरती पर उतर आये हों। वैसे तो नगर के व्यवसायी धार्मिक जुलूसों में कम ही हिस्सा लेते हैं लेकिन कुंभ का अवसर हो और अखाड़ों की शोभा, तो वे भी पीछे नहीं रहते। कामधंधे की चिंता छोड़ सुबह से ही बाल-बच्चों सहित उस मार्ग पर जम जाते हैं जहाँ से पेशवाई निकलनी हो। जूना अखाड़े की पेशवाई की चर्चा अभी ठंडी नहीं पड़ी थी कि पंचायती महानिर्वाणी की पेशवाई सामने आ गई। मैं भी इसका हिस्सा था। क्या जलवा था। सवेरे से ही वे मार्ग खाली हो गये थे जहाँ से पेशवाई निकलनी थी। सफाई ऐसी कि दूर-2 तक एक तिनका भी नज़र नहीं आता था। तोरण और बन्दनवारों से जगह-2 द्वार सजे थे, सुहागिनें आरती का थाल लेकर सुबह से ही तैयार खड़ी थीं। सड़क के दोनों ओर चूने की कतार किसी महान के आने के इंतज़ार में बिछी थीं। पुलिस प्रशासन ऐसे सतर्क जैसे राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड निकलने वाली हो। कर्नाटक से लेकर कश्मीर तक के हर प्रान्त के पहनावे में देश के कोने-2 से आये भक्तों की टोलियां, हाथी पर सवार दण्डधर, घोड़ों पर सवार शस्त्रधर कोपीनवन्त नागा सैनिक, तुरही और नगाड़े बजाते ऊँट सवार, सुसज्जित रथों पर सवार महामण्डलेश्वर और आगे-पीछे नाचते-गाते चलते उनके अनुयायी। कुल मिलाकर एक हँसता-खेलता, सुन्दर और भक्ति के भावोन्मेष में लीन भारत। हरिद्वार की सड़कों पर बिखरी आस्था उस अमृत से कम नहीं थी जो युगों पूर्व हरिद्वार की धरती पर समुद्र मंथन से निकले अमृत कुंभ से छलका था। वह तो शायद कुछ बूंद ही था पर यहाँ तो आस्था का समुद्र था जो जाति-भाषा, अमीर-गरीब, पंथ-मत आदि के अंतर को समेटना चाहता था। आस्था के इस उल्लास से केवल धरती ही नहीं आकाश भी प्रभावित था। पेशवाई पर आकाश से एक वायुयान निरन्तर पुष्प-वृष्टि कर रहा था मानो देवताओं ने भी इस अवसर को अपने आनंद से जोड़ लिया हो। हिन्दु समाज का यह उल्लास ही उसके अनन्त जीवन का सत्य है। जब तक यह आस्था रहेगी, इस देश और इसकी संस्कृति पर आँच नहीं आ सकती।
Thursday, February 4, 2010
[+/-] |
मुंबई जाना तो मराठी मानुष बनके |
16वीं शताब्दी में मुंबई पुर्तगाली राजकुमारी को दहेज में मिली थी। उसके बाद जाने कब यह ठाकरे परिवार के पास आ गई। ये हमारा वहम है कि हम लोकतांत्रिक देश का हिस्सा हैं। जब चाहे, जहाँ चाहे आ-जा सकते हैं। पर कृपया अपने इस ‘कहीं भी‘ की सूची से मुंबई को निकाल दें। गलतफहमी को पाले रखना कोई समझदारी की बात नहीं। मुंबई जाने के लिये आपको हिन्दू (शिवसेना की परिभाषा के अनुसार) होना चाहिये, मराठी आनी चाहिये और एक प्रमाणपत्र साथ होना चाहिये कि आपने ठाकरे बंधुओं के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा है, साथ ही शपथ पत्र भी कि आप आगे भी कुछ नहीं कहेंगे। पर रूकिये। कहीं आप यूपी या बिहार से तो नहीं आ रहे। यदि हाँ, तो चाहे आपके पास कुछ भी हो, आपकी मुंबई में ‘एन्ट्री‘ निषेध है। इस नियम के कुछ अपवाद हैं जिनपर आप प्रश्न नहीं उठा सकते, जैसे मुसलमानों का मुंबई में स्वागत नहीं है पर यदि वे सेलिब्रिटी हैं तो ‘ मातोश्री‘ में जा सकते हैं। उत्तर भारतीय फिल्म स्टार से भी ठाकरे साहब को कोई एलर्जी नहीं है। हिंदी भाषी गंगा किनारे के छोरे अमिताभ बच्चन के वे मुरीद हैं।उत्तर भारतीय सब्जी बेचें या सुबह दूध लाकर दें तो ‘भैयाजी‘ बहुत अच्छें हैं। पर भैयाजी का बेटा अफसर बन गया तो ठाकरे साहब की भौं टेढ़ी हो जाती है। कुछ तो बात है साहब में कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी दिल्ली से बयान तो मार देते हैं पर मुंबई जाकर उन्हें ठाकरे की ठोकरों से नहीं बचा पाते। ठाकरे जैसे शेर पर तो उनका क्या बस चलता पर वे तो अपने मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को भी ठाकरे की भाषा बोलने से नहीं रोक पाये। आज शिवसैनिक तय करते हैं कि मुबई में कौन रह सकता है और उसे क्या काम करने की इजाज़त है। शाहरूख जैसे बड़े स्टार को खुली धमकी कि ‘मन्नत‘ मुंबई में है पाकिस्तान में नही, देने वाले क्या किसी आतंकवादी से कम हैं।
तो आपने मेरी चेतावनी को गंभीरता से लिया या नहीं। मुंबई जाना तो मराठी मानुष बनके वरना आपका मालिक ठाकुर नहीं ठाकरे है, याद रखिये।
Sunday, January 24, 2010
[+/-] |
जिन्हें आंखें खुदा ने दीं वो पत्थर में खुदा देखें |
मैं कुछ दिन पहले चेन्नई के एक परिवार में मेहमान था। वह घर समुद्र तट के निकट था। वहाँ मुझे एक वृक्ष दिखाया गया। वह एक वटवृक्ष था, छोटा सा। मुझसे पूछा, स्वामी जी पता है यह किसका वृक्ष है, मैंने कहा ठीक-ठीक समझ नहीं आ रहा। उन्होंने कहा यह वटवृक्ष है। आगे कहा कि इसकी विशेषता है कि यह अठारह वर्ष का है। मैंने कहा, यह कैसे हुआ कि अठारह वर्ष का वृक्ष और अठारह इंच का भी नहीं हुआ। जरूर आप इसे खाद-पानी नहीं देते होंगे, धूप में नहीं रखते होंगे। उन्होंने बताया यह सब करता हूँ, तभी तो हरा-भरा है। मैंने पूछा तब बढ़ता क्यों नहीं। बोले इसकी जड़ें काटता रहता हूँ।
इस देश में कहा गया है- यत्र धर्मो ततो जयः। इस देश की विजय, इस देश की श्री, इस देश का वैभव, इस देश का विकास, इस देश की संपन्नता और इस देश की समृद्धि यदि किसी एक चेतना में निहित है तो वह है धर्म। पंथ नहीं, सम्प्रदाय नहीं, मज़हब नहीं, केवल धर्म। वह धर्म जो एक माँ को, एक अनपढ़ महिला को वह दृष्टि देता है जो बड़े-बड़े दार्शनिक नहीं प्राप्त कर सके। जब अबोध बालक रोता है तो उसकी माँ उसे गोद में उठाकर चाँद दिखाती है, चमकते पिंड को देखकर बच्चा चुप हो जाता है और वापस माँ की ओर देखता है। अपने बच्चे के मूक प्रश्न का वह क्या उत्तर देती है, जानते हो, वह कहती है चंदा मामा है। चाहे कितनी ही दूर क्यों न हों हमसे, पर बेटा हमारे भैया हैं, तुम्हारे मामा हैं। हज़ारों मील दूर चमकते चाँद को नज़दीक खींच लाने की ताकत अगर किसी में है तो वह इस देश की धार्मिक आस्था में है जो नाग को भी दूध पिलाकर पर्यावरण की रक्षा करती है। जो तुलसी में, धरती में देवत्व की दृष्टि रखती हैं -
जिन्हें आंखें खुदा ने दीं वो पत्थर में खुदा देखें
जिनका दिल ही हो पत्थर सा भला पत्थर में वो क्या देखें
आज राष्ट्र की एकता के सूत्र न जाने कहाँ-2 तलाशे जाते हैं। लेकिन आस्था के उस सूत्र की अनदेखी कर दी जाती है जिसने हजारों साल इस देश को बाँधकर रखा। इतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी सभ्यता पर बाहरी आक्रमण हुआ तो उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया पर भारत ने न जाने ऐसे कितने आक्रमणों को झेलकर अपने को ज़िंदा रखा। आज भी जब प्रयाग का या हरिद्वार का कुंभ होता है तो पूरा विश्व एकजुट होकर आस्था के धागे से बंधा, आस्था के समुद्र में गोते लगाकर, आस्था को पोषित करने खिंचा चला आता है।
कुंभ नगरी हरिद्वार से
आपका चिन्मयानंद