Monday, March 22, 2010
Thursday, March 18, 2010
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मंथन |
हरिद्वार का कुंभ मेला प्रगति पर है। अब तक दो शाही स्नान निर्विघ्न संपन्न हो चुके हैं। लाखों की संख्या में देश-विदेश के यात्री कुंभ में आयोजित विभिन्न धार्मिक, आध्यात्मिक आयोजनों का लाभ उठा रहे हैं। कुंभ का नाम आते ही हम सबका ध्यान उस मंथन की ओर चला जाता है, जिसका वर्णन पुराणों में किया गया है। देवता और दानव एक ही पिता की संतानें हैं लेकिन स्वभाव अलग-2 हैं। एक पिता की संतानों का स्वभाव एक होगा यह सोचना सर्वथा गलत है। कष्यप हों या विश्वश्रवा दोनों ऋषि थे और तपःपूत साधना के प्रस्तर स्तंभ भी। वैदिक परंपरा के वे ऐसे संत थे, जिनकी गणना श्रेष्ठ मुनियों में की जाती है। परंतु दोनों ही क्रमषः देव और दानव तथा रावण और विभिषण के पिता थे। देवताओं की लाख उदारता के बावजूद न तो दानवों के स्वभाव में कोई सुधार हुआ और न ही विभिषण की विनम्रता रावण को अनैतिक बनने से रोक सकी।
संभवतः मंथन का स्वभाव ही है कि वह बिना विपरीत विचारधाराओं के घटित नहीं हो पाता। आखिर मंथन के लिये एक मथानी और दो सिरे और उन दो सिरों पर दो विपरीत दिशाओं की ओर मुंह किये व्यक्ति चाहिये होते हैं जो उसे केवल अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हैं। इसी खींचतान में मथानी चलती रहती है। मथानी की इस गति से बहुत कुछ हिल जाता है। जब वर्षों से स्थिर किसी भी तत्व में हलचल होती है तो कुछ न कुछ तो निकलता ही है। अच्छा भी, बुरा भी। अच्छा सबको स्वीकार्य होता है और बुरे से बचने की कोषिष की जाती है। सब कुछ प्रकट होने देने के लिये एक बड़े धैर्य की जरूरत होती है। समुद्र का मंथन इस सृष्टि को बहुत कुछ दे गया और वह सब कुछ उनमें बंट गया जो उसके पात्र थे। झगड़ा खड़ा हुआ तो विष और अमृत को लेकर। विष से जहां सब बचना चाहते थे वहीं अमृत को केवल अपने अधिकार में लेना। भला हो भगवान षंकर का जो विष पीकर सबको संकट से बचा लिया। विष का संकट तो षिव में समा गया लेकिन अमृत हड़पने की होड़ का जो संकट पैदा हुआ उससे इन देव-दानवों को कौन बचाये...............
कुछ विशेष कार्य आन पड़ा है, शेष चर्चा कल
कुंभ नगरी हरिद्वार से आपका
चिन्मयानंद
Saturday, March 6, 2010
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नानाजी - परभनी से परब्रह्म |
पिछले कुछ दिनों से अपनी संस्थाओं में कार्य की व्यस्तता के कारण बाकी गतिविधियों से दूर रहा। कल शाम को जब हेमन्त का संदेश आया तब पता चला कि नानाजी अब नहीं रहे। नाना जी का न कोई नाती था ना पोता। यह अधिकार बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है कि रिश्ता किसी से नहीं पर नाता सबसे। संघ परिवार में उनकी जो प्रतिष्ठा थी वह तो थी ही परन्तु जो लोग संघ परिवार के दर्शन और कार्यशैली को पसन्द नहीं करते थे, वे भी नानाजी को चाहते थे। उनके मुरीदों की सूची में जहाँ मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर जैसे लोग थे वहीं रामनाथ, गोयनका और प्रभाष जोशी भी थे। संघ जैसी संस्था के दीर्घजीवी और व्यापक होने के पीछे कईं लोगों का तप और उनकी साधना हो सकती है, लेकिन नानाजी का संघ के लिये त्याग और उसकी सामाजिक अवधारणाओं की व्यापकता के पीछे निःसंदेह नानाजी खड़े थे। व्यक्ति निर्माण संघ का संकल्प है परन्तु उस कसौटी पर ’सदा वत्सले मातृ भूमे’ की उदात्तता हम सबमें कितनी है। वे एक स्वयंसेवक, राजनेता, समाजसेवी, लेखक, सम्पादक, समन्वयक, संगठक और न जाने कितनी जिम्मेदारियों को निभाते रहे लेकिन उनके मन का परिव्राजक निरन्तर चलता रहा। उनको कोई पद-प्रतिष्ठा कभी बाँध नहीं सकी। 60 वर्ष की आयु के बाद सत्ता से हटकर समाज का काम करना चाहिये, यह उनकी धारणा ही नहीं विश्वास था, जिस पर वह जीवन के अन्तिम क्षणों तक कायम रहे। गांधी का ग्राम स्वराज्य उनके संकल्पों तक ही सीमित रहा, लेकिन नानाजी का ग्राम स्वराज्य एक विश्वविद्यालय बन गया। कभी उन्होंने बलरामपुर के निकटवर्ती गाँवों में उस ग्राम स्वराज्य को मूर्त रूप देते हुए जयप्रभा जैसे गाँव की नींव रखी तो कभी चित्रकूट जाकर कामद गिरी की चट्टानों में श्रीराम प्रभु के चरण चिन्हों की खोज करते रहे। राम के भाई भरत तो चित्रकूट से अयोध्या लौट आये थे लेकिन नानाजी जो एक बार चित्रकूट गये तो कभी नहीं लौटे। यहाँ तक कि जब सारा देश रामजन्मभूमि की लड़ाई लड़ रहा था तब भी नानाजी चित्रकूट के राम से अलग नहीं हुए। तुलसी को जहाँ जनभाषा में रामायण लिखने की प्रेरणा मिली वहीं जन के जीवन की खोज नानाजी अपने जीवन के अन्त तक करते रहे।जब भी मैं उनसे मिला, उन्होंने चित्रकूट आने का आदेश दिया। मुझसे ही नहीं वे सभी से चित्रकूट आने को कहते थे। मैं भारत सरकार में गृहराज्य मंत्री था और आपदा प्रबंधन विभाग मेरे पास था। चित्रकूट की मंदाकिनी में बाढ़ आई। सब कुछ डूब गया। नानाजी ने फोन किया- कहाँ हो भाई, चित्रकूट डूब रहा है और तुम लोग कहीं नज़र नहीं आ रहे हो। क्या यही है तुम्हारा आपदा प्रबंधन। मैं वहाँ गया। नानाजी अस्वस्थ थे। उनका जर्जर शरीर इस योग्य नहीं था कि वह बाढ़ग्रस्त इलाके को देखने जा पाते। लेकिन उनको चैन कहाँ। कहाँ जाना है, क्या देखना है, क्या करना है सब उनकी ज़बान पर था। एक हाथी डूब कर मर गया था। हमारे पास ऐसा कोई नियम नहीं था जिसके अर्न्तगत उसकी क्षतिपूर्ति की जाती, पर नानाजी का आदेश- ’ अरे। यह हाथी नहीं था। यह तो चित्रकूट का गणेश था, शुभंकर था।’ मछुआरेां को पूरी मदद मिलनी चाहिये, यह वही लोग हैं जिन्होंने श्रीराम को गंगा पार कराई थी। वे गाँव से जुड़ी हर वस्तु, व्यक्ति और संस्कृति से लगाव रखते थे। कहते थे, गाँव है तो देश है। पंडित दीन दयाल, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और महात्मा गाँधी जहाँ आकर मिलते थे वह नानाजी ही थे। परभनी से लेकर परब्रह्म तक की उनकी यात्रा का अनोखा मार्ग उनका अपना बनाया हुआ था और उस पथ के वे अकेले पथिक थे। देश उस पथ पर कितना चल सकेगा कहना कठिन है लेकिन वह प्रकाश पथ हर भूखे, प्यासे, नंगे और पिछड़े गाँव के निकट जाने की राह दिखायेगा।