हिंदू धर्म में विवादित प्रश्नों का समाधान जिस एक ग्रन्थ के द्वारा प्राप्त किया जाता है उसका नाम है निर्णय सिंधु. इसमें मंदिर, मूर्ति, पूजा और पूज्य स्थान के बारे में विस्तृत चर्चा है. हर प्रश्न का उत्तर है, जिसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जहाँ प्रतिमा स्थापित होती है वह स्थान पूज्य हो जाता है.इसके अलावा स्वयं भू स्थान जिनके प्रति आस्था लोक मानस में परंपरा से आई हो वो स्थान अचल माने जाते हैं और वहाँ भूमि ही पूज्य होती है प्रतिमा नहीं. प्रतिमा का स्थान तभी बदला जा सकता है जब उसकी चल प्रतिष्ठा हुई हो. अन्यथा वहाँ किसी भी प्रकार की छेडछाड नहीं की जा सकती.भारत के अधिकांश शक्ति पीठ इसी परंपरा के हैं. कहा जाता है कि भगवान शंकर जब सती के मृत शरीर को लेकर जा रहे थे तो जहाँ-जहाँ उनके अंग गिरे वह सब स्थान शक्ति पीठ बन गये. उन स्थानों को उसी रूप में बिना छेड़छाड़ के पूजा जाता है. यद्यपि उसमें साधकों को और दर्शकों को बड़ी कठिनाई होती है तथापि इसके स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. उदाहरण के लिये गोवाहाटी का कामाख्या शक्तिपीठ. मंदिर तो एक पर्वत शिखर पर है किन्तु जिस स्थान की पूजा की जाती वहाँ न तो कोई प्रतिमा है और न ही कोई प्रतीक. केवल भूमि की, स्थान की पूजा की जाती है. दूसरा उदाहरण है वैष्णो देवी. वहाँ पिंडियां एक संकरी गुफा में हैं. परन्तु उन्हें वहाँ से हटाकर कोई भव्य मंदिर नहीं बनाया गया. उनकी यथास्तिथि पूजा की जाती है. धारी देवी भी इसी प्रकार की एक शक्तिपीठ है. वहाँ कोई प्रतिमा नहीं है जिसका स्थान परिवर्तन किया जा सके. जिस शिलाखंड के प्रति लोगों के मन में आस्था है वह स्थानीय पर्वत से अभिन्न रूप से जुड़ा है. यदि उस शिलाखंड को हटाया गया या काटा गया तो इसे प्रतिमा का विखंडन माना जायेगा. अभी हाल ही में अयोध्या प्रकरण में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हिंदू परंपरा में भूमि ही पूज्य होती है. इसलिए रामलला जहाँ विराजमान हैं वह स्थान पूज्य है. उनका स्थान परिवर्तन नहीं किया जा सकता. धर्म स्थल अधिनियम १९९१ के अनुसार १५ अगस्त १९४७ को जो पूजास्थल जिस स्तिथि में था वह उसी स्तिथि में रहेगा. उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता. धारी देवी मंदिर के प्रमाण १८०५ से पहले के हैं. इसलिए धर्मस्थल अधिनियम १९९१ के अनुसार धारी देवी में किसी प्रकार की छेड़छाड एक संवैधानिक और धर्म शास्त्रीय अपराध माना जायेगा.