Wednesday, August 31, 2011
स्वामी चिन्मयानन्द: पर्वो का उद्देश्य
Posted by स्वामी चिन्मयानन्द at 10:37 AM 1 comments
पर्वो का उद्देश्य
खुशिया ईद मुबारख की हो अथवा गणपति पूजा की दोनों पर्वो के उल्लास में आज पूरा देश डूबा हुआ है ! हर पर्व और त्यौहार हमारे लिए जिस आनंद का अवसर प्रदान करते हैं उसमे समाज की सभी विषमताए समाप्त सी हो जाती है ! अमीर गरीब बाल बर्द्ध स्त्री पुरुष सभी बिना किसी भेद भाव के उस अवसर का पूरा आनंद उठाते हैं इन त्योहारों की ख़ुशी में संसाधनों का कोई महत्व नहीं रह जाता हैं धन और साधन की सीमए सिकुड़ जाती हैं और आत्मीयता के खुले आकाश के नीचे हर कोई उन्मुक्त आनंद का भागीदार बन जाता है कदाचित हम अपने मन की खुलती ग्रंथियों को एक झटके से अलग कर सके और केवल आनंद के हर अवसर पर जगत पंथ भाषा और छेत्रिये संकीर्णता से उपर उठ कर एकात्मक हो सकें ईद के सेबेयों की मिठास और गणपति पूजा के मोदकों की मादकता को अपने नित्य के जीवन में स्थान दे सके तो कितना अच्छा हो
Posted by स्वामी चिन्मयानन्द at 10:11 AM 2 comments
Wednesday, July 6, 2011
गंगा पर बाँध या धारी देवी मंदिर - किसका है पलड़ा भारी?
हिंदू धर्म में विवादित प्रश्नों का समाधान जिस एक ग्रन्थ के द्वारा प्राप्त किया जाता है उसका नाम है निर्णय सिंधु. इसमें मंदिर, मूर्ति, पूजा और पूज्य स्थान के बारे में विस्तृत चर्चा है. हर प्रश्न का उत्तर है, जिसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जहाँ प्रतिमा स्थापित होती है वह स्थान पूज्य हो जाता है.इसके अलावा स्वयं भू स्थान जिनके प्रति आस्था लोक मानस में परंपरा से आई हो वो स्थान अचल माने जाते हैं और वहाँ भूमि ही पूज्य होती है प्रतिमा नहीं. प्रतिमा का स्थान तभी बदला जा सकता है जब उसकी चल प्रतिष्ठा हुई हो. अन्यथा वहाँ किसी भी प्रकार की छेडछाड नहीं की जा सकती.भारत के अधिकांश शक्ति पीठ इसी परंपरा के हैं. कहा जाता है कि भगवान शंकर जब सती के मृत शरीर को लेकर जा रहे थे तो जहाँ-जहाँ उनके अंग गिरे वह सब स्थान शक्ति पीठ बन गये. उन स्थानों को उसी रूप में बिना छेड़छाड़ के पूजा जाता है. यद्यपि उसमें साधकों को और दर्शकों को बड़ी कठिनाई होती है तथापि इसके स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. उदाहरण के लिये गोवाहाटी का कामाख्या शक्तिपीठ. मंदिर तो एक पर्वत शिखर पर है किन्तु जिस स्थान की पूजा की जाती वहाँ न तो कोई प्रतिमा है और न ही कोई प्रतीक. केवल भूमि की, स्थान की पूजा की जाती है. दूसरा उदाहरण है वैष्णो देवी. वहाँ पिंडियां एक संकरी गुफा में हैं. परन्तु उन्हें वहाँ से हटाकर कोई भव्य मंदिर नहीं बनाया गया. उनकी यथास्तिथि पूजा की जाती है. धारी देवी भी इसी प्रकार की एक शक्तिपीठ है. वहाँ कोई प्रतिमा नहीं है जिसका स्थान परिवर्तन किया जा सके. जिस शिलाखंड के प्रति लोगों के मन में आस्था है वह स्थानीय पर्वत से अभिन्न रूप से जुड़ा है. यदि उस शिलाखंड को हटाया गया या काटा गया तो इसे प्रतिमा का विखंडन माना जायेगा. अभी हाल ही में अयोध्या प्रकरण में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हिंदू परंपरा में भूमि ही पूज्य होती है. इसलिए रामलला जहाँ विराजमान हैं वह स्थान पूज्य है. उनका स्थान परिवर्तन नहीं किया जा सकता. धर्म स्थल अधिनियम १९९१ के अनुसार १५ अगस्त १९४७ को जो पूजास्थल जिस स्तिथि में था वह उसी स्तिथि में रहेगा. उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता. धारी देवी मंदिर के प्रमाण १८०५ से पहले के हैं. इसलिए धर्मस्थल अधिनियम १९९१ के अनुसार धारी देवी में किसी प्रकार की छेड़छाड एक संवैधानिक और धर्म शास्त्रीय अपराध माना जायेगा.
Posted by स्वामी चिन्मयानन्द at 3:35 PM 3 comments
Monday, May 2, 2011
इंसानियत का दुश्मन मारा गया.
इंसानियत का दुश्मन ओसामा बिन लादेन मारा गया. यह तो होना ही था. अमेरिका के हाथों उसकी मौत ने एक फिर साबित कर दिया कि विश्व में जब भी कोई ताकत इंसानियत को भुलाकर अपनी चलाने की कोशिश करेगी तो उसका यही हश्र होगा. आश्चर्य है कि सद्दाम और ओसामा बिन लादेन जैसे लोगों के बनाने और मिटाने दोनों के पीछे अमेरिका का हाथ था, कारण भले ही अलग-अलग हों. अमेरिका ने ही इन लोगों को संरक्षण दिया था और अमेरिकी इशारे पर ही इनका अंत हुआ. आज यह सोचने के लिये पर्याप्त अवसर हैं कि इस प्रकार तानाशाहों का अंत होने से विश्व से तानाशाही अवश्य खत्म हो जायेगी पर किसी देश का इस प्रकार तानाशाह बन जाना भी कम खतरनाक नहीं. हमें उन धार्मिक लोगों से भी सबक सीखना होगा जो मज़हब को हथियार बनाकर मासूम लोगों के खून की नदियाँ बहाते हैं. ऐसे मज़हब जो इन तानाशाहों के पक्ष में खड़े होते हैं उन्हें खुदाई मज़हब या ईश्वरीय धर्म कहना मेरे हिसाब से एक गुनाह है. इसलिए धार्मिक दृष्टि से सोचने वालों को एक बार उस भारतीय सोच को समझना होगा जिसने अहिंसा और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की बात की थी. इसके साथ ही भारतियों भी आवश्यकता है अमेरिका से सबक लेने की जो दूसरों को शांति का पाठ पढ़ाता है पर खुद पर आंच आने पर किसी को नहीं बख्शता. लादेन यदि अमेरिका के लिये भस्मासुर की भूमिका में आ गया था तो अमेरिका ने भी दिखा दिया कि वह उसका बाप है. यदि वह उसे बना सकता है तो मिटा भी सकता है. दूसरी और हम हैं जो भारत के दिल पर हमला करने वाले अफजाल गुरु और कसाब की मेहमान नवाजी में लगे हैं. दुश्मन को पहचान कर ठिकाने लगाना हिंसा नहीं बहादुरी है और भारतीय जाने जाते हैं अपनी बहादुरी के लिये. यदि हम अपनी बहादुरी भुला बैठे हैं तो अमेरिका मौजूद है हमारा सबक बनने को....
Posted by स्वामी चिन्मयानन्द at 10:30 PM 6 comments
Monday, October 18, 2010
परस्परम्भाव्यन्तः श्रेयोपरम ......
संवाद में वो क्षमता है कि वह विषाद को भी योग में बदल दे. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद इसका ज्वलंत उदाहरण है. भय और शोकग्रस्त अर्जुन के मन का विषाद यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच की वार्ता से विषादयोग बन सकता है और गीता जैसे पवित्र ज्ञान की उत्पत्ति हो सकती है, और वह भय और मुक्त से मुक्त होकर महाभारत की चुनौती स्वीकार करने को तैयार हो सकता है, तो वर्तमान भारत में क्या अब अयोध्या जैसे मसले का हल परस्पर वार्ता से नहीं निकल सकता? यदि वार्ता इतनी ही निरर्थक है, तो कश्मीर के मसले पर बार-बार वार्ता की क्या आवश्यकता है. मैं जहाँ तक समझता हूँ, वार्ता की सफलता पूरी तरह वार्ताकारों के मनःस्थिति पर निर्भर करता है. यदि हम सुलझाने और सुलझने के लिए बैठते हैं और दोनों एक ही भावनात्मक आवेग से आच्छादित होते हैं तो वहाँ शब्द, अर्थ, तर्क और प्रमाण एक ही दिशा में चलते हैं. कितने वर्षों से हम (हिंदू-मुस्लिम) इस देश में एक साथ रह रहे हैं, लेकिन एक-दूसरे को अब समझने जानने और परखने में अलग-अलग क्यों रह जाते हैं? रीति-रिवाजों, भाषा और बोली, खान-पान, पहनावा एक-दूसरे को समझने में बाधा क्यों बन जाता है? हम क्यों कुरान और गीता की नज़र से उस धुंध को दूर करने की कोशिश नहीं करते जो हमारे आपसी टकराव का कारण बनती है? आरती और अज़ान के बीच की दूरियों को कायम रखकर क्या कौमी एकता हासिल कर सकते हैं? जब-जब हम एक होना चाहते हैं किसी आस्था की ज़मीन पर आपसी जज़्बात में, तब बीच में कुछ लोग क्यों आ जाते हैं? १८५७ में जब रामचरणदास और अक्खन मियां और अमीर अली में एक समझौता हो रहा था और दोनों दो कौमों की दूरियाँ दूर करने की कोशिश कर रहे थे, तब अंग्रेजों ने अमीर अली और रामचरनदास को रामकोट के टीले पर इमली के पेड़ से क्यों लटका दिया था? क्या ये दूरी पाटने की कोशिश देश द्रोह था? क्या वे लोग जो अयोध्या को सेतु बनाकर दोनों कौमों के बीच सद्भाव का सेतु निर्माण कर रहे थे वे गलत थे? आज परिस्तिथियाँ फिर एक बार वही बनी हैं. महंत ज्ञानदास और हाशिम चचा अयोध्या के इस विवाद का अंत आपसी वार्ता से चाहते हैं लेकिन कुछ लोग फिर अंग्रेजों की तरह इस बनते माहौल को लेकर परेशान हैं. यदि अयोध्या वार्ता सर्वानुमति के समाधान तक पहुँचती है तो मुझे विश्वास है कि कश्मीर की समस्या भी इसी तरह के लोग कुछ ऐसे ही माहौल में हल कर सकेंगे. वार्ता के विरोधी देश की मानसिकता को समझें देश अब इस बिंदु पर संघर्ष नहीं, संवाद और समाधान चाहता है.
Posted by स्वामी चिन्मयानन्द at 7:42 PM 2 comments
Monday, October 4, 2010
अयोध्या विवाद के समाधान में सार्थक पहल
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महन्त श्री ज्ञानदास का मुसलिम पक्ष के प्रमुखवादी श्री हाशिम अंसारी तथा श्री त्रिलोकीनाथ पाण्डेय, जो श्री देवकीनन्दन अग्रवाल के स्थान पर विराजमान श्री रामलला की ओर से मुकदमें में पक्षकार है, का निर्मोही अखाडे़ के महन्त श्री भास्कर दास से बातचीत को इस मसले के सर्वसम्मत समाधान की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण और सार्थक पहल के रूप में देखा जा सकता है।
आज पूरे देश के सभी सम्प्रदायों के प्रमुख तथा राजनैतिक नेताओं का मत जब इस मसले के सर्वसम्मत समाधान का हो, तो निश्चित ही इसे एक अवसर के रूप में लिया जाना चाहिए। यद्यपि सभी पक्षों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में जाने के संकेत मिल रहे हैं, फिर भी जो प्रयास शुरू हुआ है, सभी पक्षों को चाहिए कि इसे वे जनरन्दाज न करें और यथा संभव अपना सहयोग प्रदान करें क्योंकि हारजीत की प्रतिद्वन्दिता से बचने का यही एक मात्र उपाय है। जैसे आजादी की लड़ाई सबने मिलकर लड़ी, वैसे ही जन्मभूमि हमारी आस्था से जुड़ी एक पवित्र भूमि है, का निपटारा भी मिलजुलकर हो। मन्दिर तभी बने पायेगा, जब हम अपने अधिकारों की हीन-भावना से ऊपर उठकर राष्ट्र और सांस्कृतिक आस्था के लिये समर्पित होकर काम करेंगे।
क्या कोई ऐसा उपाय नहीं हो सकता कि उस आस्था पर चलने वाली आध्यात्मिक गतिविधियों को सार्वभौमिक बनाया जाये और हम सभी अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप विराजमान श्री रामलला के विशाल और भव्य मन्दिर में उनकी पूजा, अर्चना, श्रद्धा, सेवा तथा सत्कार समर्पित कर सकें। यदि जन्माष्टमी और गणेश चतुर्थी की खुशियों को हम लक्ष्मी नारायण और शंकर जी के मन्दिरों में मना सकते हैं तो अन्य सम्प्रदायों की तीज त्यौहारों की खुशियाँ भी राजाधिराज भगवान श्री राम राघवेन्द्र के बाल विग्रह के सम्मुख क्या नही मना सकते।
क्या मन्दिर के प्रबंधन और पूजन, अर्चन को यथा संभव सनातन धर्म की मर्यादा के अनुरूप व्यापक और सार्वदेशिक नहीं बनाया जा सकता हैं। निश्चित ही इन संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए। विराजमान श्री रामलला के जन्मभूमि से जुडे़ सभी मसले जब लगभग समाप्त हो गये हों तो केवल पूजा, प्रबंध और स्वामित्व को लेकर आपस में उलझना, वर्तमान पीढ़ी को निराश करना होगा। उस पुण्य भूमि का बंटवारा तो किसी कीमत पर सहन नहीं होगा।
रमेश चन्द्र त्रिपाठी अथवा भास्कर दास कोई भी उस भूमि का वंटवारा नही चाहेंगे। जहाँ तक मुसलिमों की बात है तो उन्होंने उस स्थान से (जहाँ श्री रामलला विराजमान है) हटकर अन्य किसी भूखण्ड की मांग कभी नही की, कोई दूसरी मसजिद यहाँ, वहाँ, कहीं भी बनाई जाये, इस तरह की मांग कभी नही की। बदले में दूसरी मसजिद बनाकर देने की मांग भी उनकी ओर से कभी नहीं आई। यह प्रस्ताव तो समय-समय पर बिचौलियों और हिन्दू राजनेताओं के द्वारा उठाई गई। यद्यपि आपसी बातचीत का रास्ता इतना आसान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है। बातचीत में धार्मिक नेता ही शामिल हो तो उचित होगा।
एक नौकरशाह जो प्रायः ऐसे मौकों पर अयोध्या दिल्ली और पटना की दौड़ शुरू कर देते हैं, को समाधान की प्रक्रिया से अलग रखना ही उचित होगा। अयोध्या तथा देश के अन्य वैष्णव सन्तों को इस ऐतिहासिक विवाद को समाप्त करने के लिये अपने आग्रहों से ऊपर उठकर आगे आना चाहिए। मुस्लिम पक्ष के सभी आलिमों और इमामों की भी अन्तर्राष्ट्रीय स्थान पर समाधान की जमीन तैयार करने में मदद करनी चाहिए। अब हमें मिलजुलकर धर्म और अध्यात्म की दूरियों को परस्पर वार्ता और संवाद से दूर करने की दिशा में सोचना चाहिए। मुझे तो लगता है कि यदि अयोध्या विवाद को हिन्दू-मुस्लिम धर्माचार्य आपसी बातचीत से हलकर लें तो उनकी जो विश्वसनीयता जन साधारण में पैदा होगी उसकी लाभ पाकिस्तान, अलगाववाद, आतंकवाद तथा कष्मीर जैसे मसलों के समाधान में लिया जा समाधान में लिया जा सकेगा।
यह फैसला उस समय आया है जब देश में तमाम सनातन धर्मावलम्वी अपने-अपने पितरों के श्रद्धा अर्पण के लिये श्रृाद्ध कर रहे हैं। भगवान श्री राम हमारे आराध्य ही नहीं, इस देश के राष्ट्र पुरूष और पूर्वज भी हैं। न्यायालय ने तो इस अवसर पर उन्हें अपनी श्रद्धा के न्याय पुष्प चढ़रकर अपना दायित्य पूरा किया अब हमें अपनी श्रद्धा के मान उस इमाम के प्रति पूरी करनी है जिसके वजूद पर हमें (हिन्दुस्तान) नाज है।
‘‘राम के वजूद पर है, हिन्दोस्ताँ को नाज।
अहले नजर समझते है, उनको इमामें हिन्द।।
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Friday, September 24, 2010
फैसले में देरी दुर्भाग्यपूर्ण
राम जन्मभूमि पर फैसले को लेकर जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय में गतिरोध उत्पन्न किया जा रहा है, उसे लेकर देश भर के साधु संतों में व्यापक क्षोभ है। राम जन्मभूमि पर निर्णय का राष्ट्र अरसे से प्रतीक्षा कर रहा है। जिस फैसले को लेकर अब तक 12 बार न्यायिक पीठों का गठन हुआ है। 36 न्यायाधीशों ने व्यापक विचार किया है। और जो बहस दर बहस बरसों की विचार प्रक्रिया के बाद निर्णय तक पहुंचा हो, उस फैसले को टालने का निर्णय उचित नहीं है। मैं सर्वोच्च न्यायालय से विनम्र आग्रह करता हूं कि वो किसी एक गैर जिम्मेदार व्यक्ति की अपील के चक्कर में न फंसे।
हम जानते हैं कि फैसलों में हो रही देरी के कारण जो स्थितियां निर्मित होती हैं, वो देश के लिए दुर्भाग्य पूर्ण होती हैं। सन 1992 में भी इसी तरह फैसला सुरक्षित कर लिया गया था। समय सीमा में निर्णय न देने के कारण हालात ऐसे बने कि बाबरी मस्जिद को कारसेवकों द्वारा गिरा दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय एक उच्च और उदार संस्था है। उसे चाहिए कि देश के सार्वभौमिकता व जन साधारण की भावनाओं ध्यान में रखते हुए 28 सितंबर को निर्णय रोकने की अपील पर विचार न करे। बल्कि फैसला देकर देश के मन में राम जन्मभूमि को लेकर जो संशय है, उसे दूर करे। ऐसा करने से न्याय की और न्यायपालिका की इज्जत बढ़ेगी और लोगों का भरोसा बढ़ेगा।
सवा सौ सालों से चलने वाला मुकदमा फैसले के मोड़ पर पहुंच गया है। मैं समझता हूं कि फैसला जितना साफ सुधरा और स्पष्ट होगा उतना ही मसले के समाधान में मदद मिलेगी। लेकिन, फैसले में देरी लोगों को आशंकित करेगी। मेरा मानना है कि फैसले को लेकर किसी पक्ष में कोई तनाव नहीं है, और न कोई उन्माद है। मीडिया और सरकार इस मामले को ज्यादा तूल दे रही है। फैसले का स्वागत करने के लिए दोनों पक्ष तैयार है। नहीं तो सुप्रीम कोर्ट का रास्ता खुला हुआ है। लेकिन, फैसले को अटकाने की कोशिश दुर्भाग्यपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट को अब 28 सितंबर को इन नापाक कोशिशों से बचते हुए राम जन्म भूमि पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
Posted by स्वामी चिन्मयानन्द at 9:51 PM 4 comments
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